न छांव है पीपल की,
न हवा शीतल सी
न कोयल राग सुनाती है
न ही मां प्यार से उठाने आती है
यहां अखबारों के पन्नों पर
त्योहारों का पता चलता है
दिवाली के दिन भी अंधेरा
और फागुन फीका सा लगता है
बसन्ती बहार भी रूठी सी है यहां
सावन की फुहार भी सुखी सी है यहां
सहमी सहमी है सुबह यहां
और थकी थकी है शाम
बहुत याद आता है तू मुझको
ऐ मेरे गांव !
~ समकित जैन “सारिकेय”
बहुत सुंदर भाई 🙌
शुक्रिया भाई
प्रशंसनीय।