वह किसान जो दिन-रात
सींचता रहा है अन्न को
किसी ने सालों की मेहनत को
पल भर में ख़ाक कर दिया।
अपनी आंखों के सामने अन्न
जलता देख वह बिलखता रहा।
लोग झूठे दिलासों से बस
भरते रहे उसका दिल।
कुदरत के सामने उसने आंचल फैला दी,
सिर की पगड़ी धरा पर रख
वो बिलख-बिलख के बोलता रहा-
अब घर का भोजन कैसे चलेगा!
कैसे भरपाई होगी खेत-जुताई,
पटवन और खाद दुकान की।
सरकार से गुहार लगाई मुआवजे़ की,
भ्रष्ट कर्मचारी को कहां दिख पाए जलते हुए अन्न
कहां सुन पाई सरकार उसकी दर्द भरी दास्तां।
मिली तो सिर्फ मुआवजे़ के दिलासे
कुरहन अपने दिल में दबा कर वो फिर से,
लग गया
- अगले फसल की तैयारी में।
बहुत ही भावनामयी कविता हैं ये जो किसानों की दुःखो का व्याख्यान कर रही हैं ✅