सफ़र चाहे बस का हो या रेलगाड़ी का

हम यात्रा को आनंद से जीना चाहते हैं।

प्यास लगने पर पानी की बोतल खरीदते हैं

और प्यास बुझने पर कहीं भी फेंक देते हैं

खिड़की से बोतल को कहीं भी फेंक देने के बदले अगर कहीं ठहर कर उसे

किसी कूड़ेदान में डाला जाय

तो हम गंदगी फैलने से बचा सकते हैं।

हम बचा सकते हैं

किसी परिवार को भूख से मरने से

बोतल को ऐसे जगह पर फेंक कर

जहाँ से कोई कचड़ा बीनने वाला

उसे आसानी से उठा सके

और उसे बेचकर

अपने पेट की आग को बुझा सके।।

~उज्ज्वल वाणी

One Comment

  1. इज्ज़त, मान-मर्यादा, तहजीब, प्रतिष्ठा
    ये सब “ढोंग” है “भरे पेट का”
    “भूखा पेट” ये सब क्या जाने
    वो तो अपना पूरा जीवन “पेट”
    की “आग बुझाने” में लगा देता है।

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