पापा ये शब्द नहीं है रूप नहीं है, इंसान का,

इंसान के रूप में ये रूप है ईश्वर का।

 

मेरी हर छोटी-सी -छोटी जरूरतों का ध्यान है रखते,

मेरी हर छोटी – सी -छोटी ख्वाहिश को पूरी है करते।

 

मुझको नए कपड़े देते खुद पुराने हैं पहनते,

मेरी खातिर ना जाने कितने दिन घर से दूर हैं रहते।

 

मलमल के जूते लाने में पड़ गए पैरों में छाले मगर,

देखकर खरोंच छोटी सी जिस्म पे मेरे हो जाते है बैचैन,

मगर जख्मों पे अपने कभी मरहम लगाया नहीं है करते।

 

जीवन अपने लिए नहीं औरों के लिए जीते देखा है,

अंगारों पे चलते देखा है अपनों की खातिर,

मैंने अपने पापा कों कड़ी धूप में जलते देखा है।

 

स्वपन है मेरा लगाना गले से उन्हें

कहना है, करने को विश्राम उन्हें।

 

दुनियाभर की खुशियाँ दे सकू मैं उन्हें,

थाम लू उंगलियाँ मैं उनकी, जैसे बचपन में थामा करते थे वे।

 

सहारा बन सकूं उनके बुढ़ापे का मैं,

बस इतना सा है स्वप्न मेरा।

 

एहसास- जज़्बात दिल के खोल देता हूँ माँ के सामने मैं,

मगर पापा जी से कुछ कहने में हिचकता हूँ डरता हूँ मैं।

 

पिता – पुत्र के बीच किसने खींच दी है लकीरें,

किसने खड़ी कर दी है दीवारे दरमियाँ हमारे।

 

अदब की, लिहाज की,सम्मान की, समर्पण की है दीवारे,

मर्यादा की, संस्कार की है लकीरें।

 

सख्त है स्वाभाव मगर नरम है दिल उनका,

पापा के जैसा, जहाँ में कहाँ है कोई दूजा।

 

ईश्वर कों कभी देखा नहीं मैंने,

मगर पापा कों अपने, देखा है मैंने।

 

पापा ये शब्द नहीं है रूप नहीं है, इंसान का

इंसान के रूप में ये रूप है, ईश्वर का..!

– Abhishek Singh Abhi

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