यह किसने कहा है जग से मैं श्रृंगार नहीं लिख पाता हूं?
है किसी श्रमिक के स्वेद-कणों से सुंदर मुक्ता-माल कहो,
क्या किसी धातृ के स्नेह से उत्तम किसी रमणी का जाल कहो,
मैं मानव के हर रूप में ही रसराज के दर्शन पाता हूं
यह किसने कहा है जग से मैं श्रृंगार नहीं लिख पाता हूं?
श्रृंगार की परिभाषा क्या बस आसक्ति तक ही जाएगी?
क्या मानव-मात्र से प्रेम की भावना कोई जगह नहीं पाएगी?
मैं तो श्रृंगार के रूप में भी जग-प्रेम को ही अपनाता हूं।
यह किसने कहा है जग से मैं श्रृंगार नहीं लिख पाता हूं?
परिमाण बदल कर देखो जो, हर अणु से राग ही रिसता है,
बंधुजन से अनुराग के वश नर संसार-चक्र मे़ं पिसता है,
मैं तो बस उनकी आंखों का जल बन बहता जाता हूं,
यह किसने कहा है जग से मैं श्रृंगार नहीं लिख पाता हूं?
क्या मनुज- मात्र से प्रेम है किसी कवि का अधिकार नहीं?
क्या नर-नारी के आकर्षण के इतर होता कोई प्यार नहीं?
मुझे है संसार से आकर्षण,सो गीत उसी के गाता हूं
यह किसने कहा है जग से मैं श्रृंगार नहीं लिख पाता हूं?

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