हाँ शुरू हमने नई सी यह रिवायत की है
अपने दुश्मन से भी हददर्जा मुहब्बत की है
हम तिरे जाल में उलझे हुए तड़पे जानां
क्या कभी हमने कोई तुमसे शिकायत की है
इक नज़र दीद मिले दिल को सुकूँ आ जाये
अपनी आँखों से कई बार बगावत की है
ऐसे चमकें कि कमर रौशनी में छिप जाए
कब फलक ने ये सितारों पे इनायत की है
बुझ गए ख्वाब मिरी आँखों में धीरे धीरे
सर्द मौसम ने भी आ कर के शरारत की है
जाल क्या टूटा की अफ़वाह उड़ा दी सबने
कुछ परिंदों ने शिकारी से अदावत की है
उगते सूरज पे भी होता है यकीं देर से अब
दौर ए माज़ी में रफ़ीकों ने वो हरकत की है
जब कभी ‘रूह’ को आराम सा महसूस हुआ
ज़िन्दगी ने नए ज़ख़्मों की तिजारत की है
वाह! क्या कहने हैं 👏
Waah