सब मुझको अच्छे लगते थे

 

वो छोटा सा माटी का घर

वो छोटा सा चूल्हा मेरा

वो गुडिया कहती थी मुझसे

कहाँ भाग गया दूल्हा मेरा

वो रंग बिरंगी तितली का 

जब झुंड सामने आता था

वो दृश्य देख हर्षित होता

मेरा रोम रोम मुस्काता था

कहीं पेड़ों की डालों पर जब 

वो मोर अचानक दिखते थे

सब मुझको अच्छे लगते थे

 

माँ के हाथों की वो ममता

जिनसे मैने खाना खाया

तन मन जो मेरा व्यथित रहा

अपने हाथों से सहलाया

पापा को आते देखते ही

मेरा बिस्तर में छिप जाना

चल बैग उठा ये कहते ही

मेरा सपनों में सो जाना

प्यारी रातों के सपनें भी

जब मुझको सच्चे लगते थे

सब मुझको अच्छे लगते थे

 

जब रोज सुबह बागों में इक 

कोयल समझने आती थी

हो जाते थे मदहोश सभी 

जब अद्भुत राग सुनाती थी

लम्बी लम्बी शाखाओं से जब 

किरणें छन कर आती थी

उस स्वेत किरण का रस पीकर 

सारी वसुधा खिल जाती थी

कहीं मंदिर में हो शंखनाद 

गाड़ियाल कहीं पर बजते थे

सब मुझको अच्छे लगते थे

2 Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *