शेर-ओ-सुख़न नहीं खयाल लिखता हूं
दिल-ए-नाज़ुक का हाल लिखता हूं
स्याही जब तलक कागज़ पे चलती है
आह , दर्द , गम मलाल लिखता हूं
दिल ज़ख्मी है , दिल शिकस्ता है
दिल के ज़ख्मों का सवाल लिखता हूं
दौलतमंदों का हाल तो ज़ाहिर है सब पर
मैं ग़रीबों की बेबसी का हाल लिखता हूं
लड़ते है लोग अक्सर ज़बान-ओ-मज़हब को लेकर
मैं गंगा-जमुना तहज़ीब बेमिसाल लिखता हूं
यूं तो अदना हूं दरिया-ए-सुखनवरी में , मैं
मगर कुछ अहबाब कहते हैं , कमाल लिखता हूं
✍️वासिफ़ मसूद