बेरुखी का आलम

**बेरुखी का आलम**

 

सांसे भी रुक रुक के चलने लगी है अब,

फिर भी इस जान से फुरकत नहीं आई।

 

शाम भी तो मायूस हो गई है अब,

मेरे मेहबूब की अबतक ख़बर नहीं आई।

 

मोहब्बत करना, बया ना करना,

हमे हमारी ही आदत पसंद नहीं आईं।

 

हिसाब-ए-जाम, साकी ना करना,

अब तक इस दिल की चाहत नहीं आई।

 

आदत अकेले दिन गुजरने की हो गई है,

तन्हा रातों की आदत अब तक नहीं आई।

 

उम्र भरी सूरत तो हो गई है,

एक उम्र गुज़र गई वो अब तक नहीं आई।

 

सबर की वो देहलीज भी पार न हुई,

इस दिल को कभी भी राहत नहीं आई।

 

किसी को इस दिल से मोहोब्बत न हुई,

किसी को कभी ये सूरत पसंद नहीं आई।

 

 

               ~Radheshwar

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